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रावल योगी  समाज का नाथ  संप्रदाय 

 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु, गुरुदेवो महेश्वरा:।
गुरु साक्षात् परम ब्रह्मा, तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
अज्ञानतिमिरांधस्य, ज्ञानांजनशलाकया।
चक्षुरुन्मिलितं येन, तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
ज्ञान, शक्ति समारुद्हम, तत्व माला विभूषितम।
भक्ति- मुक्ति प्रदाता च, तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
ध्यानमूलं गुरु मूर्ति, पूजामूलं गुरु पदम् ।
मंत्र मूलं गुरु वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा॥

 

मानव जीवन

तमस,

राजस व

सात्विक

के आधार पर बढता हैl

योगी तमस तथा राजस से निकलकर सात्विक जीवन अपनाकर तप से तपाते हैंl

तभी उनका शरीर अनंत चेतना को धारण करने में समर्थ होते हैं l  

व्यक्ति को अपने जीवन में किसी भी सफलता को प्राप्त करने के लिए संयम, संकल्प और नियमों की आवश्यकता पङती है|

व्रत में संयम, संकल्प और नियम निहित होता है|

व्रत का मतलब भी एक तरह से योग धारण करना ही है| 

जितने भी योग हैं उनमें यदि संकल्प क्रिया सक्रिय नही है तो सब व्यर्थ है|

योग, ध्यान एवं मौन-साधना प्रभु भक्ति का रूप नही है ब्लकि उसके लिए शक्ति अर्जित करने का एक साधन है| 

 

योग चित्तकी वृत्तियों का निरोध है 

अर्थात्

जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह योगी नाथ/अवधूत है।

 

अक्सर देखने में आता है कि लोग योग का असली तात्पर्य नही समझ पा रहे हैंl

 शारीरिक क्रियाओं एवं शरीर को स्वस्थ रखे जाने को योग के नाम से परिभाषित किया जाता हैl उनकी नजर में योग केवल व्यायाम मात्र हैl जबकि केवल शरीर को पुष्ट करना मात्र योग नही हैl यह तो उसका अर्धसत्य हैl

 

 उसका पूर्ण सत्य तो ध्यान यानि आत्मानुभूति एवं आत्मचिंतन द्वारा मूल तत्व से साक्षात्कार होना हैl अर्थात् जो वास्तव में है, उसको वैसा यथार्थ जान लेना हैl योग व्यक्ति को अज्ञान (अशान्ति, अन्धकार, असत्य, जङता, ईर्ष्या आदि) से ज्ञान (शान्ति, प्रकाश, सत्य, चैतन्य, सौह्यर्द, आदि) की ओर ले जाता हैl जिस प्रकार अग्नि में तपाने से सोना आदि धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैl ठीक उसी प्रकार योग से शारीरिक एवं मानसिक दोष दूर होते हैंl अर्थात् मन, वाणी और शरीर द्वारा अपने और समाज हित में किया गया धर्म-कर्म ही योग संस्क्रति का मूल हैl 

 

आज योगी नाथ संप्रदाय के अर्थ बदल गए हैं। आज यह जातिसूचक शब्द से ज्यादा कुछ नहीं हैl उक्त शब्दों को नहीं समझने के कारण अब इनकी गरिमा नहीं रही। योगी इतिहास को देखें तो योग अज्ञान की निवृत्ति एक प्रक्रिया ही हैl जिसमें व्यक्ति को उस परम् तत्व की अनुभूति होती है, जो कि जाँच-परख के दायरे से बाहर हैl

 

योगी समाज में भक्ति-योग,

ज्ञान-योग और कर्म-योग की जो त्रिवेणी निरन्तर प्रवाहित होती रहती है,

उसे किसी एक काल अथवा किसी ऐतिहासिक व्यक्ति विशेष की शिक्षाओं का प्रतिफल नही कह सकतेl वह तो धीरे-धीरे अनेक शताब्दियों में प्राकर्ति के साथ सामंजस्य स्थापित करने वाले विभिन्न धार्मिक एंव सामाजिक विचारों के समावेश से वर्तमान स्वरूप में विकसित हुई हैl अनेक धार्मिक गुरुओं ने योग के एक या अनेक अंगों को अपनी शिक्षा का प्रमुख अंग बनाया हैl 

योगी वह नहीं है जो वर्तमान में जीता है,

बल्कि योगी वह है जो वर्तमान में भविष्य के सपनों को साकार करने के लिए जीता है| 

 

  अधिकांश गुरूओं ने शास्त्रों को महत्व नहीं दिया, केवल गुरू के सानिनध्य में रहकर मौखिक ज्ञान की शिष्य परम्परा से ही योग साधना पल्लवित होती रही हैl योगसूत्र षड् आस्तिक दर्शनों में से एक शास्त्र है और योगशास्त्र का एक मूल ग्रंथ हैl योगसूत्र के रचनाकार पतञ्जलि हैlयोग (आत्मा की अनश्वरता का ज्ञान अर्थात योग विधा) ही संपूर्ण जीवन की आधारशीला हैl - तीनों का मौलिक यहाँ मिल जाता हैl 

आठ अंगों में पतंजलि ने इसकी व्याख्या की हैl ये आठ अंग निम्नांकित हैं:- 

1. यम : पांच सामाजिक नैतिकता;

         (१) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना

         (२) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना

         (३) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना

         (४) ब्रह्मचर्य - सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना

         (५) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना

 

2. नियम: पाँच व्यक्तिगत नैतिकता

(१) शौच - शरीर और मन की शुद्धि

(२) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना

(३) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना

(४) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना

(५) ईश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा

 

 

 

3. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण

4. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण

5. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना

6. धारणा: एकाग्रचित्त होना

7. ध्यान: निरंतर ध्यान

8. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था

 

कालांतर में योग की नाना शाखाएँ विकसित हुई जिन्होंने बड़े व्यापक रूप में अनेक भारतीय पंथों, संप्रदायों और साधनाओं पर प्रभाव डालाl

             वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते हैं और ये ईश्वर को घट-घट वासी मानते हैं। ये गुरु को ईश्वर मानते हैं। गुरु परंपरा के अनुसार शिव है हमारे कुल के मुलl शिव के अनुयायी होने के नाते स्वयं को उनसे सम्बन्धित करना एक बात है स्वयं को उनकी वंश परम्परा से जोङना दूसरी बात है| दोनों के अन्तर को सुचारू रूप से समझने की आवश्यकता है| यह सम्प्रदाय भारत का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे योगियों का सम्प्रदाय है। श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर यधपि सभी वर्ण अनुयायी हुए, किन्तु इनमें सर्वाधिक अनेकों क्षत्रिय जातियों के लोग तथा बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। जातिगत द्रष्टि से किसी ठोस प्रमाण के अभाव में हमें प्राचीन काल से इस प्रकार सम्बन्धित होने के दावे छोङ कर मध्य-युगीन इतिहास में ही अपनी जङों की खोज करनी चाहिए|

सदाचार के आधार, आपदा (महामारी) से बचाने वाले, योगसाधक, कथावाचक, गाथावाचक, धर्मोपदेशक बाबा तथा सांस्क्रतिक जीवन मूल्यों को सुद्रढ करने वाला योगी समाज शुरू से ही हिन्दुओ की विश्वास पद्धति एवं धार्मिक विचारधारा का नाम रहा हैl धर्म-कर्म, ज्ञान-ध्यान और योग-साधना का मार्ग अपनाने वाले परम् प्राचीन ऋषि-मुनि अर्थात योगी समाज की सुदीर्घ अवधि में कितना कुछ समा गया होगा, कहना मुश्किल हैl योगी समाज की वज्रयान शाखा के अनुयायी उस समय सिद्ध कहलाते थे। इनकी संख्या चौरासी मानी गई है। उनकी सहजिया प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति को केंद्र में रखकर निर्धारित हुई थी। इस प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। 

       नाथ-संप्रदाय में गुरु मत्स्येन्द्रनाथ और उनके शिष्य गोरक्षनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। उनकी कई महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। सिद्ध सरहपा (सरोजपाद अथवा सरोजभद्र) प्रथम सिद्ध माने गए हैं। इसके अतिरिक्त शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा, कुक्कुरिपा आदि योग सहित्य के प्रमुख् सिद्ध कवि है| चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। ये कवि अपनी वाणी का प्रचार जन भाषा मे करते थे| इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों, पदों और चौपाई में प्राप्त होती हैं।

सदियों से समाज व दुनियादारी से विरक्त, जंगल, पहाङ जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले योगी समाज के जीवन यापन के तरीके भी अलग हैंl उनकी अपनी विशिष्ट संस्क्रति और परंपराऐं हैंl जो कि वास्तव में अहंकार के निवारणार्थ और सामाजिक एकता के लिये गुरु गोरक्षनाथजी द्वारा बताया गया उपाय है। तदनुसार स्थान, जाति, वर्ग, वर्ण और कुल के आधार पर भेद किये बिना याचना करने पर मात्र तीन घरों से जो कुछ भी, जैसा भी और जितना भी मिल जाये उससे निर्वाह करने की आज्ञा है, किन्तु इस आज्ञा का अतिक्रमण करके लोगों ने इसे व्यवसाय ही बना लिया। मूल व्यवस्था अनुसार योगी को किसी भी स्थान पर रूके बिना किसी घर के द्वार पर जाकर तीन बार ‘अलख निरंजन का उदघोष करने पर यदि गृहस्वामी भिक्षा नहीं मिले तो आगे बढ़ जाना और पीछे से आवाज़ दिये जाने पर भिक्षा ग्रहण नहीं करने का नियम था। ऐसे तीन घरों से प्राप्त भिक्षा ही योगी के पूरे दिन का आहार व आतिथ्य की सामग्री होती थी। जन साधारण भी इस तथ्य को जानता था और इसीलिये योगी को भिक्षा देने में इस बात का ध्यान रखा जाता था कि दी जाने वाली भिक्षा योगी के लिये हर प्रकार से पूरी हो। कालान्तर में अनेक कारणों से लोगों में नाथयोगियों के प्रति आस्था में कमी और उनके द्वारा दी जाने वाली भिक्षा में कटौती होती चली गयी। योगियों में भी अपने दिनभर के आहार और आतिथेय के लिये अतिरिक्त भिक्षा मांगना अपरिहार्य हो गया। धीरे-धीरे योगियों के नियम और भिक्षा मूल्यों का ह्रास होता गया और भिक्षा एक व्यवसाय बन गयी। बहरहाल यह कुरीतिकेवल ग्रामीण क्षेत्रों में और विषेषत: मात्र भर्तृहरि पंथ के योगियों में है, जो बदलते परिवेष में अपनी अन्तीम सांसें ले रही है। 

 

एक योगी वे हैं जो अपना सब कुछ त्यागकर अपने गुरू की शरण में ब्रह्मचारी रह कर योग ध्यान एवं साधना का पालन करते हुए अपने तन-मन पर नियंत्रण रखते हुए अपनी साधना को पूर्णता की ओर ले जाते हैl वहीं दूसरे योगी परिवार में रहते हुए अपने मन को प्रभु के ध्यान केन्द्रित कर अपने पारिवारिक जीवन को पूरा करते हुए त्याग व सयंमपूर्वक आदर्श जीवन व्यतीत करते हैं और जीवन के अभिष्ट लक्ष्यों (परहित साधन ही पुण्य है एवं दूसरों को कष्ट देना ही पाप है तथा परिवार अथवा समाज बिना व्यक्ति का अस्तित्व अनिश्चित सा है) को प्राप्त होते हैंl अर्थात योगी शिष्य परंपरा के साथ पुञ परंपरा चलाते हैंl गृहस्थ योगियों को योगी समाज का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना जाता हैं।

योगी का तात्पर्य उस वैराग्य से तो कदापि नही है, जिसमें संसार एवं अपनो से भागने का प्रयास किया जाता हैl इसका अभिष्ट है; सुख दुख: से ऊपर उठकर परम् तत्व की प्राप्तिl योगियों का विश्वास आदिनाथ महादेव शिव में तथा श्रद्धा आदिशक्ति महादेवी जगदम्बा में हैl वे अपनी प्रार्थना में 'ॐ' अक्षर का प्रयोग करते हुए परमात्मा का स्मरण (जाप) करते हैंl हर सुबह ललाट पर चंदन/राख से दो या तीन शैतिज रेखाऐं बना लेते है तीन रेखाऐं शिव के ञिशुल का प्रतिक है तथा रेखाओ के साथ एक बिन्दी उपर या निचे बनाते जो शिवलिंग का प्रतीक है।

         योगी समाज के ऋषि मुनियों ने सांसारिक इच्छाओं, आवश्यकताओं, स्पर्धाओं आदि से उठकर आध्यात्मिक विकास को प्रमुखता देकर भी भौतिक अभ्युदय की कभी उपेक्षा नही कीl इस प्रकार साधक योगी जीव भाव से उबर कर सदा आत्मभाव में स्थापित हो जाने के लिए प्रयत्नशील रहता हैl परमात्मा और जीवात्मा के मध्य माया (अज्ञान) का आवरण ही वह पर्दा है जो परमात्मा के साक्षात्कार में बाधक हैl इसे हटाने के लिए जीवन की धारा को यथा संभव धीरे-धीरे भौतिक जगत से आध्यात्म में लाने की जरूरत हैl परन्तु इसका अर्थ यह तो कतई नही है कि वह कर्म करना ही छोङ देl कर्म तो उसे करते ही रहना है, लेकिन कर्म के बन्धनों में नही फँसना हैl क्योंकि बंधनों में फंसकर अर्थात् पदार्थ के प्रति आसक्ति रखने से वह पदार्थ का दास बनता जाता हैl बुराई धन-वैभव की कमाई में नही हैl अपितु बुराई इस क्षणभंगुर संपदा के अभिमान में और उससे मोह करने में मानी हैl 

     नाथ सम्प्रदाय की मान्यता है कि, सर्वप्रथम अलग-अलग दिषाओं के अधिष्ठाता सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड में भ्रमणषील नव नाथों की उत्पत्ति हुई, ये नवनाथ ही नाथ सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। जिन्हें अयोनिज अर्थात जन्म की साधारण प्रकि्रया से उत्पन्न नहीं होने वाला माना गया है। नवनाथों के नामों पर विचार करते हैं तो ग्रन्थों और विद्वानों को नवनाथों के नाम पर एकमत नहीं पाते। अपने मत के समर्थन और अपने स्वामी/गुरू को महिमा मणिडत करने के लोभ में किसी ने किसी महापुरूष का नाम नवनाथों में से हटा दिया और किसी का नाम जोड दिया? 

नवनाथ-शाबर-मन्त्र;

“ॐ नमो नव-नाथ-गण, ओंकार आदि-नाथ।

उदय-नाथ पार्वती, सत्य-नाथ ब्रह्मा।

सन्तोष-नाथ विष्णुः, अचल अचम्भे-नाथ।

गज-बेली गज-कन्थडि-नाथ, ज्ञान-पारखी चौरङ्गी-नाथ।

माया-रुपी मच्छेन्द्र-नाथ, जति-गुरु है गोरख-नाथ।

घट-घट पिण्डे व्यापी, नाथ सदा रहें सहाई।

नवनाथ सहीत चौरासी सिद्धों की दुहाई। ॐ नमो आदेश गुरु की।।”

नवनाथों के स्वरूप चिन्तन में परम् तत्व ओंकार स्वरूप आदिनाथ शिव से लेकर गोरक्षनाथ के बाल स्वरूप तक जीव की उत्पती से उसके पूर्ण विकास पर्यन्त जिन नौ स्थितियों का प्राकटय होता है, वह विलक्ष्ण है।

परम् तत्व स्वरूप (ओंकारनाथ) आदिनाथ और 

आदिशक्ति से, प्राकटय धरती स्वरूप (उदयनाथ) 

धर्म से, पोषण जल स्वरूप (सत-नाथ)

 (ब्रहमा) से,स्थायित्व तेज/रवि स्वरूप (सन्तोषनाथ) विष्णु से,

जीवन की सार्वभौम एवं सर्वकालिक सत्ता आकाश स्वरूप (अचलनाथ) 

शेषनाग से, जीवन तत्वों की उत्पती, जीवन यापन के समस्त साधन व सामथ्र्य हस्ती स्वरूप (गजबेली / कन्थडनाथ)

गणेश से, ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ती (चौरंगीनाथ) 

चन्द-रुप से, विभिन्न विषयों में प्रयोग मायारूपी (मत्स्येन्द्रनाथ)

नारायण से और उक्त सभी कि्रयाकलापों सहित सत्य तत्व का मार्ग प्रशस्त करने वाला इन्द्रीयनिग्रही विवेक बालस्वरूप (शम्भूयती गोरक्षनाथ) आदिनाथ भगवान शंकर से प्राप्त होता है।

 

ऊपरोक्त नवनाथों के नाम पर ग्रन्थ और ग्रन्थकार एकमत नहीं हैं। सत्य निकाल पाना आसान नहीं है। केवल मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ का नाम लगभग सभी ग्रन्थों में समान रूप से नवनाथों में शामिल हैl

 

 

 

 

 

 

 

 

एक प्रमुख मान्यता के अनुसार, 

योगी नाथ सम्प्रदाय बारह पन्थ (12 पंथों) की निम्नांकित सूचि दी गयी है में विभक्त है,

यथाः-
1. मत्येन्द्रनाथ (सत्य नाथ),

2. गोरक्षनाथ (धर्म नाथ),

3. दशनामी (आदि शंकराचार्य), 

 4. पारसनाथ (आर्इ पंथ),

 5. भर्तृहरि पंथ (वैराग्य के),

 6. बालकनाथ (मन्नाथी पंथ),

7. कपिलानी (कपिलमुनि)

, 5. चौरंगीनाथ (गंगानाथी पंथ),

 9. अवधनाथ (राम के) 

10. बप्पा रावल (रावल के रावल योगी),

11. जालंधरनाथ (पाव पंथ) और

12. जंगमl

 

         इन बारह पन्थ की प्रचलित परिपाटियों में कोई ज्यादा कुछ भेद नही हैं। ये पंथ वास्तव में किसी सन्यासी परम्परा का विभाजन न होकर, यह उपयुक्त नवनाथों मत्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ अथवा उनके शिष्यों के अनुयायियों के ही समूह थे/हैं। किन्तु उनके पष्चात इन बारह पंथों के अनेक उपपंथ और उपपंथों की अनेक शाखा-उपषाखाएं विकसित होती रहीं। समय समय पर अलग-अलग स्थानों पर उत्साहित और समर्पित शिष्यों ने अपनी सुविधा अनुसार नवनाथों में से किसी एक के नाम के स्थान पर अपने गुरू का नाम प्रतिस्थापित कर दिया। जहां कहीं राजा, महाराजा व सम्पन्न व्यकितयों ने नाथ सम्प्रदाय की दीक्षा ली उन्होंने अथवा उनके समीपस्थ सहायकों ने स्थान विषेष की परम्परानुसार नवनाथों के नामों का चित्रण, मुद्रण एवं ग्रन्थ रचनायें करवा दी, जो आज नवनाथों के नामों के संबन्ध में मतभिन्नता का कारण बनी हुई हैं। अपने -अपने गुरू को सर्वोच्च सम्मान देने की मानसिकता के कारण अनुयायियों द्वारा अपने पंथ के प्रवर्तक का नाम नवनाथों की नामावली में रखकर उनकी वन्दना करने की प्रबल सम्भावना इस अनुमान को और भी पुष्ट कर देती है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

योगी केवल एक जाति अथवा समुदाय नही, एक उपाधि हैl जो योग धारक को दि जाती हैl योगियों के अस्तित्व को तीन चरणों में देखा जा सकता है:-


1. जिसमें शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता तथा चरित्र विकास होता हैl
2. जिसमें शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता तथा चरित्र विकास की क्षमताओं के साथ-साथ उनमें समाज प्रेम एवं परोपकार की भावना तथा आध्यात्मिक क्षमताऐं विकसित होने लगती हैंl
3. जिसमें योगी शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता तथा चरित्र निर्माण के बाद आध्यात्मिक उन्नति करते हुए अपनी प्रकर्ति की उत्क्रष्ट क्षमता को पहचानना शुरू कर देते हैl विशेषतः यम-नियम, ज्ञान-ध्यान, योग-साधना आदि का आवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुँच जाते हैं कि उनको अन्य शक्तियों के साथ-साथ कामधेनु और कल्पव्रक्ष योग शक्तियाँ प्राप्त होती हैंl कामधेनु का अर्थ है, कामनाऐं पूरी करने वाली शक्ति अर्थात इच्छा शक्ति और कल्पव्रक्ष अर्थात कल्पना शक्ति के द्वारा कल्पनाओं में इतनी शक्ति आ जाती है कि कल्पना करते ही पदार्थ की कल्पित मूर्ति बन जाती हैl


सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है।

योगी समाज के नियम:-
1. प्रतिदिन भक्ति (जाप, प्रभु चिंतन एवं प्रार्थना) करनाl
2. शरीर की शुध्दता को बनाए रखनाl प्राणायाम को नियमित जीवनचर्या में शामिल करने से शरीर हमेशा निरोग रहता हैl
3. परोपकार, ज्ञान-ध्यान, योग-साधना आदि की पवित्र कमाई करना तथा धन-संपदा आदि का संचय नही करनाl
4. धर्म, समाज, संस्क्रति तथा पर्यावरण एवं प्रक्रति की रक्षा करनाl
5. परहित साधन ही पुण्य है एवं दूसरों को कष्ट देना ही पाप हैl
6. सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा आदि को धारण करनाl काम, क्रोध, हिंसा, नशा, लोभ, स्वार्थ, झूठ, चोरी, निंदा, पक्षपात, छुआछात आदि बुराईयों बचनाl
7. देह त्यागने पर परम् सिद्ध योगी के लिए समाधि और ग्रहस्थ योगी के लिए दाह-संस्कार का सिद्धांतl
8. मन वाणी और कर्म से सदाचार का पालन करेंl

       नाथ पंथ' के संस्थापक 'गुरू गौरक्ष नाथ' संपूर्ण योगी समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले आध्यात्मिक पुरूष तथा राष्ट्र की दिशा एवं दशा तय करने वाले व्यक्तितत्व का नाम हैl उन्होने चरित्र निर्माण एवं मानवीय गुणों के विकास तथा जीवन यापन के लिए सरल मार्ग को अपनाने पर जोर दियाl उनका नाम राष्ट्रीय सुधारकताओं में सम्मान के साथ लिया जाता हैl गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना 


         जाता हैl  गोरखनाथ ने योग सम्प्रदाय (सम्प्रदाय; एक परम्परा को मानने वालों का नाम है।) के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस सम्प्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया। गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। गोरखनाथ के समय के  संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है। गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं।

 

             योग परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। समस्त योगी यही मानते हैं कि आदिनाथ उनके प्रथम गुरु हैं। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग (तप और स्वाध्याय) को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। एक मान्यता के अनुसार,  मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया और वहां कीमहारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उसकी तलाश मे वहां पहुँचे।                 भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें। मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया, परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।

                         श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है। श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को 'ओघड़' कहते है और इसका आधा मान होता है।

                 योगी दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। नाथ योगी हठयोग पर विशेष बल देते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। नागा बाबाजी (भभूतीधारी दिगम्बर साधु बाबा ) भी उक्त सम्प्रदाय से ही है,  इन्हें दशनामी(गोसाई) समाज का माना जाता है। नागा साधु बाबाओं की जीवन शैली को अगर देखा जाए तो एक नागा बाबा को तैयार होने में तकरीबन 12 साल लग जाते हैं। नागा बाबा बनने के लिए इन्हें कठोर वैराग्य जीवन बिताना होता है। अपनों को छोड़कर सारी सांसरिक खुशियों को त्यागकर ये लोग समाज की नजरों से दूर जीवन बिताते हैं। 12 सालों की कठिन तपस्या के बाद नागा बाबा अखाड़ों में शामिल होते हैं।

                           नागा साधु बाबा पहाड़ों पर ही रहते हैं। पहाड़ों में होने वाली बर्फबारी से वहां का वातावरण अधिकांश समय बहुत ठंडा होता है। गांजा, धतूरा, भांग जैसी चीजें नशे के साथ ही शरीर को गरमी भी प्रदान करती हैं। जो वहां नागा साधुओं को जीवन गुजारने में मददगार होती है। अगर थोड़ी मात्रा में ली जाए तो यह औषधि का काम भी करती है, इससे अनिद्रा, भूख आदि कम लगना जैसी समस्याएं भी मिटाई जा सकती हैं लेकिन अधिक मात्रा में लेने या नियमित सेवन करने पर यह शरीर को, खासतौर पर आंतों को काफी प्रभावित करती हैं। इसकी गर्म तासीर और औषधिय गुणों के कारण ही इसे शिव से जोड़ा गया है।

                       भांग-धतूरे और गांजा जैसी चीजों को शिव से जोडऩे का एक और दार्शनिक कारण भी है। ये चीजें त्याज्य श्रेणी में आती हैं, शिव का यह संदेश है कि मैं उनके साथ भी हूं जो सभ्य समाजों द्वारा त्याग दिए जाते हैं। जो मुझे समर्पित हो जाता है, मैं उसका हो जाता हूं।ये गांजा पीते हैं, ताकि खुद को आध्यात्मिक रुप से आत्मिक और धार्मिक शक्तियों में बदल सकें। गांजे से इन्हें अपना ध्यान केन्द्रित करने में बल मिलता है। तप के बल से ये अपने को कठोर बनाते हैं। शरीर पर भभूत लपेट कर ये अपनी आकर्षकता को खत्म करते हैं ताकि आम लोग इनसे दूर रहें। भस्म शरीर के आवरण का काम करती हैं और यह वस्त्रों की तरह ही उपयोगी होती है। भस्म बारिक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे सर्दी या गर्मी महसूस नहीं होती हैं। इससे भी इनके वैराग्य को बल मिलता हैl

                      'दशनामी संन्यास प्रणाली अर्थात दशनामी साधु समाज' के संस्थापक 'जगदगुरु आदि शंकराचार्य' ने पूरे देश का भ्रमण किया और अपने दार्शनिक सिद्धांत 'अदैतवाद' का प्रचार कर वैदिक सनातन धर्म की पुनः प्रतिष्ठा कीl एक विराट भारतीय हिंदू समाज की स्थापना की और लोकहित में वैदिक धर्म की धारा निरंतर बहती रहे, इसे सुनिश्चित करते हुए 7वीं व 8वीं के मद्य आदि शंकराचार्य ने देश की चारों दिशाओ में चार मठों की स्थापना करके पहली बार हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए सगठित रूप से राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किया। शंकराचार्य ने अखाड़ों के संबंध में मठाम्नाय ग्रंथ की रचना की थी। यह शंकराचार्य की नियमावली अथवा यह कह लें कि संविधान है। इसमें धर्म की व्याख्या के साथ इस बात का उल्लेख है कि किस अखाड़े का इष्ट, ध्वज, रंग और देवी देवता कौन होगा। चारों पीठ उसमें दशनामी संन्यासियों के अलग-अग शंकराचार्यो से दीक्षा लेने का वर्णन है। आचार्य शंकर के इन चारों शिष्यों ने वेदकालीन गृहस्थ गोस्वामियों में से दस शिष्य बनायें और इन्हीं दस शिष्यों ने धर्म प्रचार के लिए बावन मढियों की स्थापना की जो नीचे लिखें महापुरूषों के नाम से प्रसिद्ध है। शिष्य नारायणगिरि, पूर्णपर्वत, राम सागर, नित्यानंद हस्तमलक भारती, परमानन्द सरस्वती, विशिष्ठ वन, शम्भू आरण्य, गौतम तीर्थ, अनन्त आश्रम।

                    दीक्षा के समय प्रत्येक दशनामी जैसा कि उसके नाम से ही स्पष्ट है, निम्न नामों, गिरि, पुरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम या सरस्वती में से किसी एक नाम से अभिभूषित किया जाता है। इसके पश्चात उसे कुछ प्रतिज्ञा करनी पड़ती है, जिनके अनुसार वह यह संकल्प करता है कि वह दिन में एक बार से अधिक भोजन नहीं करेगा। सात घरों से अधिक घरों से मधुकरी नहीं मांगेगा। भूमि के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान में शयन नहीं करेगा। न वह किसी के सामने नतमस्तक होगा, न ही किसी की प्रशंसा करेगा, न किसी के विपरीत दुर्वचनों का प्रयोग करेगा और न अपने से श्रेष्ठ श्रेणी के संन्यासी को छोड़कर अन्य किसी का अभिवादन करेगा। गेरुआ वस्त्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्त्र से अपने को आच्छादित नहीं करेगा।

                          कुंभमेला के समय दशनामी प्रमुख डेरे पर बावन मढियों का प्रतीक, 52 हाथ उँचे खंबे पर, 52 हाथ लंबे गेरुवे वस्ञ की ध्वजा लगाई जाती है। राजा हर्षवर्धन ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये अपनी फौज में धर्मध्वजा स्थापित की थी। जब हर्षवर्धन की फौज कमजोर पडने लगी तथा उन्होने ’धर्मध्वजा‘ को संभाल पाने में असमर्थता जताई तब सन्यासियं ने कुम्भ पर्व ’’इलाहाबाद संगम प्रयाग‘‘में भार उठाया और तब से लगातार हिन्दू धर्म की रक्षा का दायित्व उठा रखा है। उसी समय से नागा संन्यासी अखाडों की परम्परा में धर्मध्वजा फहराने का प्रचलन शुरू हो गया। जिस प्रकार सेना का अपना ध्वज होता है। उसी प्रकार अखाडो की भी अपनी ’ध्वजा‘ होती है। जिसे ’’धर्मध्वजा‘‘ कहा जाता है जिसके नचे अखाडो के साधु एक जुट होकर ’धर्म‘ की रक्षा के लिये डटे रहते हैं। धर्म ध्वजा की स्थापना के साथ ही अखाडों की कुम्भ मेलें में धार्मिक रीतिरिवाज की शुरूआत हो जाती है। धर्मध्वजा की स्थापना के बाद अखाडों की पेशवाई शुरू होती है। जो नगर का बडे जुलूस के रूप भ्रमण करते हुए अपनी-अपनी छावनियों में प्रवेश कर जाती है। पेशवाईयों की धाक देखते ही बनती है। नागा साधु भस्म लगाकर और अन्य साधु श्रृंगार करके पेशवाई में भाग लेते है। 1879 मे हरिद्वार कुंभ मे अखाडो मे पहले स्नान को लेकर मारपीट हुई जिसमे 500 साधु मारे गये तभी से अखाडो के स्नान का क्रम निर्धारीत किये गये।

 

                     हठ योग तथा कौतुहलपूर्ण कारनामों के कारण नागा लोगो के लिए श्रद्धा के साथ रहस्यमय भी होते हैं। नागाओं के शास्त्रधारी और अस्त्रधारी दो अंग हैं। शास्त्रधारी शास्त्रों आदि का अध्ययन कर अपना आध्यात्मिक विकास करते हैं तथा अस्त्रधारी अस्त्रादि में कुशलता प्राप्त करते हैं। नागाओं में शस्त्रधारी नागा अखाड़ों के रूप में संगठित हैं। 11वी शताब्दी देश पर विदेशी आक्रमणक्रताओं के हमले शरू हुए। विशेष रूप से उतर पश्चिम से मुस्लिम व मुगलों के लगातार आक्रमण से हिन्दू धर्म घोर संकट खड़ा हो गया। 14वीं सदी के आसपास मुसलिम शासकों का जब विधिवत उतर भारत में शासन स्थापित हो गया तो तो उन्होंने हिन्दू राजाओं तथा यहाँ की जनता को न केवल राजनैतिक रूप से बल्कि धार्मिक रूप से भी पददलित करना शुरू कर दिया। इन्हीं परिस्थितियों में धर्म को बचाने के लिए धर्माचार्यों ने अखाड़ों की स्थापना की थी। महाकुंभ में जूना अखाड़े के नागा साधु सर्वाधिक चर्चा में रहते हैं।  इन अखाड़ों के अधीन कई मंडल हैं जिन्हें मंडलेश्वर व महामंडलेश्वर कहा जाता है। महामंडलेश्वर ऐसे व्यक्ति को बनाया जाता है, जो शास्त्र का ज्ञान रखता हो तथा देश में भ्रमण कर धर्म का प्रचार करने मर सक्षम हो। इन मंडलों को अखाडा द्वारा दिए जाने वाले आदेश व निर्देश मानने पड़तेहैं। अखाड़े में अपना कोतवाल तथा न्यायाधीश होता है, जो सन्यासियों के मामले में हर प्रकार के फैसले लेता है तथा जरुरत पड़ने पर कार्यवाही भी की जाती है। इन अखाड़ों का गठन धार्मिक फौज के रूप में हुआ था। अखाडों की व्यवस्था में सख्त अनुशासन कायम रखने की दृष्टि से इलाहाबाद कुम्भ तथा अर्धकुम्भ एवं हरिद्वार कुम्भ’ में इन अखाडों में श्री महंतो का नया चुनाव होता है|

 

                    जंगम योगी, भगवान शिव की जांघ से निकले भगवान शिव के वह अंश हैं (शिव है कुल इनके मुल)। यह वह योगी हैं जिन का काम विवाह उत्सव और शिव महिमा का गुणगान करना है। सर पर मोरपंख लगाए हाथों में घंटी और झाल मंजीरा, कान में पार्वती मां के कुंडल पहने, माथे पर बिंदी और मुकुट और गले में रुद्राक्ष की माल पहने एक विशेष भेष-भूषा से इनकी पहचान हो जाती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव ने भगवान विष्णु एवं ब्रह्मा को विवाह कराने के लिए दक्षिणा देना चाहा, पर उन्होंने इससे इंकार कर दिया। इसपर महादेव को क्रोध आ गया। उन्होंने अपनी जांघ पीटकर जंगम साधुओं को उत्पन्न किया, जिसने महादेव से दान लेकर उनके विवाह उत्सव में गीत गाए और सभी रस्मों को संपन्न करवाया। ये साधु भगवान शिव के जंघों से निकले हैं, इसलिए इन्हें जंगम योगी की संज्ञा दी गई है। जंगम गृहस्थ होते हैं। इनका कोई गुरु नहीं होता और परिवार में ही शिवपुराण, कंठस्थ करवाई जाती है।

 

 

 

नाथ सम्प्रदाय की प्रसिद्ध 'रावल पंथी शाखा' के आदि प्रवर्तक राष्ट्र रक्षक, पंथ प्रवर्तक,

दिग्विजयी नाथ बाबा बप्पा रावल हैं l

 

                     जो लोग लुटेरों के दबाव में मुसलमान बन गए उनको फिर से हिन्दू बनाने का महान् अभियान चला कर राष्ट्र को भीतर से भी सुरखित कियाl कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में योगी गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने योगी के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।

 

 

 

      नाथ योगी अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है।

 

 

"गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है, गुरु से अधिक और कुछ नहीं है।"

‘’ૐ નમો આદેશ ગુરુજી’’  

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